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कविता
काली मिट्टी
केदारनाथ सिंह
काली मिट्टी काले घर
दिनभर बैठे-ठाले घर
काली नदिया काला धन
सूख रहे हैं सारे बन
काला सूरज काले हाथ
झुके हुए हैं सारे माथ
काली बहसें काला न्याय
खाली मेज पी रही चाय
काले अक्षर काली रात
कौन करे अब किससे बात
काली जनता काला क्रोध
काला-काला है युगबोध
शीर्ष पर जाएँ
हिंदी समय में केदारनाथ सिंह की रचनाएँ
कविताएँ
अकाल में दूब
अकाल में सारस
अँगूठे का निशान
अड़ियल साँस
आँकुसपुर
आना
एक कविता - निराला को याद करते हुए
एक छोटा सा अनुरोध
एक दिन हँसी-हँसी में
एक मुकुट की तरह
ओ मेरी उदास पृथ्वी
कुछ और टुकड़े
कुछ टुकड़े
कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए
काली मिट्टी
खर्राटे
घुलते हुए गलते हुए
छोटे शहर की एक दोपहर
जे.एन.यू. में हिंदी
जड़ें
जूते
जनहित का काम
जब वर्षा शुरू होती है
झरबेर
दृश्ययुग-1
दृश्ययुग-2
दूसरे शहर में
दाने
दिशा
धीरे-धीरे हम
न होने की गंध
नए शहर में बरगद
नदी
पूँजी
पानी में घिरे हुए लोग
फलों में स्वाद की तरह
बढ़ई और चिड़िया
बनारस
बसंत
मंच और मचान
मेरी भाषा के लोग
मातृभाषा
यह अग्निकिरीटी मस्तक
यह पृथ्वी रहेगी
रक्त में खिला हुआ कमल
लयभंग
लोककथा
वह
शहर में रात
शहरबदल
शाम बेच दी है
सुई और तागे के बीच में
सन ४७ को याद करते हुए
सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए
सृष्टि पर पहरा
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